मध्यप्रदेश की प्रमुख बोलियां #madhya pradesh language
#पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी द्वारा मध्यप्रदेश के प्रमुख बोलियों पर लेख,
बघेली बोली की शब्द सम्पदा
हमारे मध्यप्रदेश में चार प्रमुख बोलियाँ हैं जो
1- बुन्देली
2- बघेली
3- मालबी
4- निमाड़ी
आदि नामो से जानी जाती है।
भाषा का सम्बंध हमेशा समाज से रहा है। साथ ही संस्कृति से भी। क्यो कि वह सुख - दुःख , वैर-प्रीति , हँसी- ठिठोली, जीवन यापन के सारे आयामो में शरीक रही हैं।
इस हिसाब से बोलियों का जुड़ाव मनुष्य समुदाय के अधिक करीब देखा जाता है। क्यो कि बोलियाँ मुख्यतः अपने अपने क्षेत्र की लोक ब्यौहार की समूची भाषा ही होती है। अलिखित ही सही पर उनका एक ब्याकरण भी होता है । तभी तो अगर उसके अनुबंधों का पालन थोड़ा भी इधर उधर हुआ तो भाषा मे विकृतता स्पस्ट दिखने लगती है।
#बघेली पुराने रीवा,सतना, सीधी, शहडोल आदि चार जिलों की प्रमुख बोली थी। किन्तु अब सीधी शहडोल में उमरिया, अनूपपुर एवं सिंगरौली आदि 3 तीन जिले और बन गये है ।अस्तु अब यह 7 जिलों की बोली हो गई है। पर इनके अतिरिक्त भी बघेली कटनी के पूर्वी भाग और समूचे बाँदा जिले की भी बोली है। यहां तक कि कटनी के पश्चिमी भाग में भी जो बुन्देली बघेली के बीच की एक बोली पंचेली है वह भी बघेली के काफी समीप है।
यद्दपि गो. #तुलसीदास जी के द्वारा रचित रामचरित मानस को बिद्वान लोग अवधी की रचना मानते है । पर वस्तुतः वह गहोरी में लिखी गई है जो बघेली का ही एक लोक स्वरूप है।
क्योकि उसके क्रियापद अवधी के बजाय बघेली के अधिक निकट हैं। यूपी वाले तो यू ही बाँदा को बुन्देल खण्ड का जिला मानते है । तब गो. तुलसीदास जी की जन्म स्थली राजापुर की गहोरी अवधी कैसे हुई ? उस माप दण्ड में तो उसे बुन्देली होनी चाहिए ? पर यदि समूचे बाँदा जिले की बोली को देखा जाय तो न तो वह बुन्देली है न अवधी है ? बल्कि गहोरी है जो पूरी तरह बघेली का ही लोक स्वरूप है ।
कुछ बिद्वान बघेली को पूर्वी मगधी गोत्र की बोली मानते है। पर वह वस्तुतः यहां के आदिम निवासी य कृषि आश्रित समाज की बोली है जिसमे किसान मजदूर एवं कृषि अवलम्बित शिल्पी जातियां भी शामिल थी। इसलिए बघेली में उन सभी के लोक ब्यौहार के समस्त किया कलाप समाहित हैं।
क्योकि जब शहर का कोई ब्यक्ति गेंहू चावल आदि खरीदने जाता है तो मात्र 10 -12 शब्दो मे ही उसका काम चल जाता है। वह य तो झोला लेता है य बोरा लेता है ? साइकल लेता है य रिक्सा पकड़ता है ? इसी तरह पैसा-दाम, मोल-भाव , बाट- तराजू बस इतने कम शब्दों में ही उसका काम चल जाता है और गेहूं चावल उसके घर आजाता है।
किन्तु वही गेहूं चावल जब किसान अपने खेत मे उगाता है तो खेत की तैयारी से लेकर कट मिज का उसके भंडार गृह में आते- आते लगभग दो ढाई सौ शब्द बनते है। पर वह शब्द खड़ी बोली के नही सभी बघेली के ही होते है।
बघेली को पहले रिमही कहा जाता रहा है । इसका आशय शायद "रेवा "यानी कि "नर्मदा के उद्गम के आस पास बोली जाने वाली बोली "से रहा होगा ? किन्तु बाद में अंग्रेजो द्वारा नागौद, सोहावल, कोठी,मैहर,जसो, बरौधा , चौबेपुर, रजोला, आदि इन तमाम राज्यो को भी रीवा से मिला कर जब बघेलखण्ड नामक एक एजेंसी बनी तो बुंदेल खण्ड की बोली बुन्देली, य वैस के क्षेत्र वैसवारी के तर्ज पर अग्रेजो ने बघेल खण्ड की भी इस 7-8 राज्यो की मिली जुली बोली का नाम बघेली रख दिया। क्यो कि इन तमाम राज्यो की बोली रिमही से थोड़ा भिन्न थी।
यू तो बघेली की शब्द सम्पदा 10 हजार शब्दो से अधिक है । किन्तु इसमे कुछ ऐसे शब्द भी हैं जिनके बोलने पर एक शब्द चित्र सा खिंच जाता है। उदाहरण के लिए एक शब्द है
" खाव चबाव" और दूसरा बघुआव।पर इनका उपयोग जब पूरे वाक्य के साथ किया जाता है तो आखों के सामने एक चित्र सा खिंच जाता है।उदाहरण स्वरूप इस वाक्य में देखें -- "मैं तो अपने राशन खातिर कोटेदार से पूछेव त,व, तो अइसय खाव चबाव अस दउरा ? "य कि ,
" मैं तो तहसील दार साहेब से दाखिल खारिज करय क बिनती किहव त ,उय ,त अइसय बघुआय अस के परे?" आदि आदि। "खाव चबाव" से जहां कुत्ते के काटने दौड़ने का दृश्य उपस्थित होता है वही "बघुआय के परब " से बाघ की तरह गुर्राना य दहाड़ने का दृश्य।
बघेली का लिखित साहित्य भले ही अन्य बोलियों से कम हो पर इसके मौखिक साहित्य को कमतर नही आका जा सकता। इस मौखिक साहित्य में लोकगीत, लोक कथाए, पहेलियां ,लोक आख्यान, मुहावरा लोकोक्तियां, कहावते आदि अनेक बिधाए है।
बघेली में एक एक शब्द के इतने पर्यायबाची शब्द है जिन्हें देख कर न सिर्फ आश्चर्य होता है बल्कि यह भी पता चलता है कि यह बोली कितनी सम्रद्ध एवं पुरातन है?
क्योकि अगर कोई बालक शैतानी करता है तो खड़ी बोली में उसका एक ही मानक शब्द होगा
" शैतान बालक" जिसे कह करआप फुर्सत हो जाय गे।
पर बघेली की शब्द सम्पदा देखिये कि उस मे उस शैतान बालक के " टन्टपाली, टपाकी, टनसेरी, अउठेरी, उपचीरी, उधुमधारी, आदि बहुत सारे पर्यायबाची बन जाय गे।
इसी तरह खड़ी बोली के मार पीट को यदि बघेली में परिभाषित किया जाय तो-- मारिदेव, मसक देव ,दउचिदेव हपच देव ,धमकिदेव ,पसोटदेव् , सोटदेव, दपचि देव, कचेरिदेव, लतिआयदेव, पेलिदेव, कउचि देव, कूचिदेव, कुचरि देव।" हपचि देव आदि बीसों शब्द देखे जाते हैं।
यह तो पर्याय बाची शब्द थे पर आप लगे हाथ बघेली के कुछ व्यंजनों का भी अवलोकन करें
1. कढ़ी
2. फुलउरी
3. बरा
4. मुगउरा
5. कोरउरा
6. बरी
7. बगजा
8. इंदरहर
9. रसाज
10. रिकमछ
11. टहुआ
12. पना
13. लाटा
14. भुरकुंडा
15. खुरमा
16. मउहरी
17. फरा
18. गोलहंथी
19. महेरी
20. खिचरी
21. भगर
22. भउरा
23. गादा
24. बहुरी
25. बगरी
26. कोहरी / घुघुरी
27. सेमईं
28. खीर
29. तस्मई
30. चउंसेला
31. सोहारी
32. दरभरी पूरी
33. उसिना
34. पेंउसरी
35. खोझरी
36. पनिहंथी रोटी
37. भरता
38. मसलहा
39. लप्सी
40. लाई-लुड़ुइया
41. गुराम
42. मिठखोर
43. रसियाव
44. धोख
45. कुसुली
46. पपरी
47. अंगाकर
48. रोट-पंजीरी
49. लउबरा
50. काची
51. फांकी कोंहड़ा के
52. कोंहड़उरी बरी
53. छोटकीबा बरी
54. चरपर
55. करी-मठुली
56. अमावट
57. खाझा
58. रहिला (चना) के भाजी-साग
59. मालपुआ
60. घाठ / दरिया
61. कोदई के भात
62. चिल्ला
63. लपकउरी (नाम सुनेन खाएन नहीं)
64. निगरी
65. कलउंजी
66. मुरबाती
67. करोनी
68. चुरबा रहिला नोन मसाला मिलाय के
69. छउंका माठा
70. दार-भात
71. दूध-भात
72. माठा-भात
73. दूध-रोटी
74. माठा-रोटी
75. घाठ-माठा
76. कोदई-भाजी
77. आमा के अथान /अचार / रक्का (पनिहां अउर तेलहा)
78. आमा के छुन्ना के अचार
79. नोनचा
80. अमरा के अचार
81. अमरा के चटनी
82. अमरा के मुरब्बा
83. भूंजा भात
84. जोनरी के रोटी चुन्ना मुन्ना कइके
85. कनेमन रोटी
86. खिचरा
87. रहिला के भाजी नोन के डर्रा (खेत मा खोंट के)
88. रहिला के रोटी नोन के डर्रा
89. चना क होरा
90. मटर क होरा
इस तरह यह कहना गलत न होगा कि बघेली अपने सात आठ जिले वाले इस भूभाग में लोक ब्यौहार की सम्पूर्ण भाषा है जिसमे जरूरत भर के शब्दों की बहुत बड़ी शब्द सम्पदा मौजूद है।
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